भारतीय इतिहास के पन्ने सदियों से अपनी दासता की गाथा प्रस्तुत करते हैं। भारत सदियों से विदेशियों के अधीन रहा। आर्यो के पश्चात शक-हुण-कुषाण; शिया-सन्नी-मुगल-पठान एवं अन्त में डच-पुर्तगीज-फ्रेन्च-अंग्रेजों ने भारत में अपना शासन स्थापित कर सतत शोषण किया। विदेश आक्रमणकारियों एवं भारतीय शासकों के काल में राजतन्त्र स्थापित रहा। अंग्रेजों ने इस देश में प्रजातन्त्र की नींव रखी। भारतीय मूल के निवासियों में छत्रपति शिवाजी महाराज ने भारतीय राष्ट्र की पुन: स्थापना की कोशिश की। उनका यह सपना उनकी मृत्यु के पश्चात छिन्न-भिन्न हो गया।
मुगलकालीन बादशाह जहांगीर के शासनकाल में, अंग्रेज, सन् 1600 ईसवी में भारत व्यापार करने “East India Company” बनाकर आये। सन 1757 में बगांल के नवाब सिराजुद्दौला को प्लासी के युद्ध में हराकर अंग्रेजों ने भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना की। सन् 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह हुआ, भारत के शासन की बागडोर “East India Company” से छीनकर‘British Government’ ने अपने हाथों में ले ली। इस तरह भारत भी कभी सूर्यास्त न देखने वाले अंग्रेजी राज्य का एक उपनिवेश बन गया।
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का इतिहास हमारे महापुरुषों के त्याग, तपस्या एवं बलिदान से भरा-पड़ा है। सरदार वल्लभ भाई पटेल को इन महापुरुषों के अग्रिम पंक्ति में गिना जाता है।
गुजरात राज्य के अहमदाबाद-बड़ौदा राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है, जिला-खेड़ा। खेड़ा जिला के बोरसद तालुका में ग्राम करमसद निवासी झवेर भाई पटेल के पांच पुत्रों एवं एक पुत्री से भरे पूरे परिवार में वल्लभ भाई पटेल का जन्म हुआ। मां लाड़ बाई ने ननिहाल नाडिया डमें 31 अक्टूबर 1875 में एक पुत्र को जन्म दिया, नाम रखा गया वल्लभ भाई। भाइयों में वल्लभ का क्रम चौथा था; सोमा, नरसिंह और विट्ठल वल्लभ से बड़े थे एवं काशी एवं डाहीबा वेन छोटे।
सदियों पहले पंजाब-यू.पी. से चलकर गुजरात में आ बसे इन खेतिहर जातियों को तत्कालीन शासकों ने खेती-किसानी करने जमीन का पट्टा प्रदान किया, जिससे इनको पाटीदार, पटेल, अमीन, कण्वी, कुनबी, कूर्मि कहा जाता है। पाटीदारों में लेवा एवं कड़वा उपजाति है। लेवा उपजाति में वल्लभ भाई का परिवार आता है।
गुजरात में ऐसी कहानी प्रचलित है, कि 'प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम' के समय सन् 1958 में युवा झवेर भाई घर से भागकर झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की सेना में शामिल हो गये थे। अंग्रेजों ने उन्हें बन्दी बनाकर इंदौर के राजा होल्कर के सुपूर्द कर दिया। झवेर भाई ने शतरंज के शौकीन राजा होल्कर को एक चाल सुझाकर हारने से बचाया। झवेर भाई की चतुराई से प्रसन्न होकर राजा ने झवेर भाई को मुक्त कर अपने राज्य में नौकरी देने का प्रस्ताव रखा। लेकिन झवेर भाई वापस गुजरात आकर पैतृक व्यवसाय कृषि में संलग्न हो गये। उनके पास लगभग 10 एकड़ खेती थी। झवेर भाई की मृत्यु सन् 1918 में 85 वर्ष की उम्र में हुई।
वल्लभ भाई ने अपनी प्राथमिक शिक्षा करमसद के स्कूल में 7-8 वर्ष की उम्र से शुरु की। दस वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने शिक्षक से प्रश्न पूछा तो उत्तर में शिक्षक द्वारा जवाब गाली के साथ मिला-'खुद पढ़कर सिखो-मुझे मत पूछो'। तब से वल्लभ भाई ने खुद काम कर सीखने की आदत डाली। गांव में प्रायमरी पास करके, आगे अंग्रेजी की पढ़ाई करने वल्लभ भाई ने नवसारी जाने की पिता से अनुमति चाही। पिता ने कहा ''हमारे पास इतने रुपये नहीं कि तुम्हें अंग्रेजी शिक्षा के लिये नवसारी भेज सकूं। हल चलाओ, घर की खेती में हाथ बटाओं।'' लगातार 2 वर्षो तक अपने हाथों से खेती कर पैसा कमाया और अपनी आगे की शिक्षा जारी रखी। झवेर भाई, वल्लभ भाई को खेत में भी पहाड़ा रटाया करते थे। मां लाड़ बाई घरेलु एवं दयालु प्रकृति की महिला थी। छै बच्चों का परिवार एवं घर की जिम्मेदारी की वजह से वल्लभ भाई की देख भाल करने के लिये माता -पिता ज्यादा समय नहीं दे पाते थे। विद्यार्थी जीवन से ही वल्लभ भाई में अन्याय से लड़ने की प्रवृत्ति थी। चौदह साल की उम्र में करमसद में खुले नये स्कूल से 22 वर्ष की उम्र में मेट्रीक की परीक्षा पास की।
वल्लभ भाई पटेल का विवाह लगभग 17 वर्ष की उम्र में झवेर बाई से हुआ। करमसद से 4 कि.मी. दूर स्थित ग्राम गाना के देसाई भाई पंजा भाई की पुत्री थी, झवेर भाई बेन। शादी के समय झवेर बेन की उम्र 12-13 वर्ष थी। शादी के 16 वर्ष बाद जनवरी 1909 में झवेर भाई बाई की मृत्यु उन्तीस वर्ष की कच्ची उम्र में पेट के अल्सर के कारण ''मेडम कामा हास्पिटल'' बम्बई में ऑपरेशन के दौरान हो गई। उस समय वल्लभ भाई की 2 संतानें - मणिबेन एवं डयाहा भाई की उम्र क्रमश: 5 वर्ष एवं 3 वर्ष की थी। पत्नी की मृत्यु के पश्चात वल्लभ भाई उम्रभर विधुर रहे, अर्थात उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया।
सन् 1900 ईस्वी में उन्होंने गुजरात के खेड़ा जिले के गोधरा नामक स्थान पर मुख्तारी के स्वतन्त्र पेशे को अपनाया। वल्लभ भाई की गणना सफल वकीलों में शीध्र ही होने लगी। झवेर बाई (बेन) के साथ अपनी गृहस्थी उन्होंने यहीं से आरम्भ की। मुख्तारी करते हुये, इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बनने की इच्छा बलवती हो चली थी, जिसके कारण प्रैक्टिस के शुरुवाती दौर से ही पैसा एकत्र करने लगे थे। पत्नी झवेर बाई ने इस कार्य में उनका पूरा सहयोग दिया।
विट्ठल भाई को इस बात का पता चला, तो उन्होंने स्वयं भी बैरिस्टर बनने की इच्छा जाहिर की। वल्लभ भाई ने अंग्रेज के इस इच्छा की पूर्ति के लिये अपनी कमाई से एकत्र पैसों को सहर्ष दे दिया। सन् 1905 से 1908 तक इंग्लैड में रहकर, बैरिस्टर बनकर विट्ठल भाई वापस भारत आये। सन् 1913 में अहमदाबाद में आयोजित 'अखिल भारतीय कूर्मि क्षत्रिय महासभा' के नवें महाअधिवेशन की अध्यक्षता बैरिस्टर विट्ठल भाई पटेल ने की थी। इस अधिवेशन में वल्लभ भाई पटेल भी शामिल हुये थे। वे सन् 1924 में 'राष्ट्रीय असेम्बली' के लिये चुने गये और 22 अगस्त सन् 1925 को सरकार द्वारा समर्थित श्री डी रंगाचारी को हरा कर 'सेन्ट्रल असेम्बली' के प्रेसिडेन्ट चुन लिये गये। विट्ठल भाई की योग्यता का लोहा वायसराय भी मानते थे। लोग प्यार से उन्हें प्रेसिडेन्ट पटेल भी कहते थे।
लगभग 30 वर्ष की उम्र में जब वल्लभ भाई, मुख्तारी की अपनी बहस कर रहे थे, उन्हें पत्नी के देहावसान की सूचना तार द्वारा मिली। विचलित हुये बिना, जिरह जारी रखकर अपनी कर्तव्य परायणता का परिचय दिया। प्लेग से ग्रसित अपने मित्र के पुत्र की सेवा अपनी जान की बाजी लगाकर की, जो उनके मित्र प्रेम को दर्शाता है। ऐसे भ्रातृ प्रेम, कर्तव्य परायणता, मित्र प्रेम, देशप्रेम स्पष्टवादिता से उनका जीवन ओतप्रोत था। ऐसा मानवतावादी उदाहरण केवल वल्लभ भाई के अनोखे व्यक्तितत्व में ही मिल पाता है।
सन् 1910 में 35 वर्ष की उम्र में वल्लभ भाई ने मुख्तारी पेशे से पैसा संचित कर बैरिस्टर की डिग्री हासिल करने इंगलैंड पहुंचे। शारीरिक कष्ट सहने की उनमें अपार क्षमता थी। इंगलैड प्रवास के दौरान, उनके पांव में नहरुआ रोग हो गया था। जो एक ऑपरेशन से ठीक नहीं हुआ। एक जर्मन डाक्टर ने वल्लभ भाई का दुबारा ऑपरेशन किया, वो भी बिना क्लोरोफार्म (निश्चेतक) के। पीड़ा सहने की असीम शक्ति को सराहते हुये, डाक्टर ने कहा कि पटेल जैसा जीवट मरीज, आज तक मैने नहीं देखा।
लंदन लाइब्रेरी में पुस्तक पढ़ने रोजाना सात मील पैदल चलकर जाते थे। बैरीस्टरी के चार - टर्म की परीक्षा को, पटेल ने तीन -टर्म में ही पुरी कर ली। बैरीस्टरी की परीक्षा में सारे 'राष्ट्र मण्डलीय' (Common Wealth) विद्यार्थियों के बीच में प्रथम रहे। 50 पौंड का नगद पुरुस्कार वल्लभ भाई पटेल को प्रदान किया गया। यश और सम्मान सहित सन् 1913 में इंगलैण्ड से भारत लौटे।
अहमदाबाद में सन् 1913 में बैरिस्ट बनकर वकालत प्रारम्भ की और अपने पेशे में पूर्णतया सफल रहे। वल्लभ भाई की पत्नी का देहान्त जब वे मात्र 30 वर्ष के थे, तभी हो गया था। परिवार वालों और मित्रों के लाख समझाने के बावजूद उन्होंने दूसरी शादी नहीं की। जीवन पर्यन्त विधुर रहे, लेकिन उनके चरित्र पर कलंक का एक भी टीका नहीं लगा। उनके एकमात्र पुत्र डयाहा भाई एवं पुत्री मणि बहन थीं। पिता के त्याग, बलिदान का असर पुत्री पर पड़ा और आजीवन पिता की सेवा करने के उद्देश्य से मणिबेन ने, विवाह नहीं किया। वल्लभ भाई, गांधी जी द्वारा चलाये गये चम्पारन (बिहार) के आन्दोलन से काफी प्रभावित हुये थे। सन् 1916 में 'रौलेट एक्ट' के विरुद्ध प्रदर्शन जुलूस में शामिल हुये थे। सन् 1917-18 में खेड़ा सत्याग्रह में गांधी जी के सहयोगी के रुप में भाग लिये थे। अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलनों में भाग लेते, सन् 1921 में बैरिस्टरी की जोरदार तरीके से चलते हुये, व्यवसाय को पूर्ण रुपेण त्यागकर स्वाधीनता आंदोलन में कूद पड़े। सन् 1924 से 1928 तक अहमदाबाद नगर पालिका बोर्ड के अध्यक्ष रहे। अपने कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचारी अंग्रेज इंजीनियर पर कार्यवांही कर निर्भिक्ता का प्रमाण दिया। कर अपवंचकों को उचित दन्ड देकर, कर संग्रहण में वृध्दि की। वल्लभ भाई पटेल के अंग्रेज विट्ठल भाई का लोहा वायसराय के मंत्री परिषद के अंग्रेजों ने भी माना, वे अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त कानूनविद थे।
अंग्रेजों ने किसानों के उत्पादन का एक चौथाई कर के रुप में लेने का आदेश पारित किया। जिसके विरुद्ध ''बारडोली'' के किसानों को संगठित कर सत्याग्रह आंदोलन चलाया। बारडोली सत्याग्रह आंदोलन लगभग 26 महीनों तक चला। इसमें कम से कम 3000 किसानों ने जैल यात्रा की। अंत में पटेल के नेतृत्व में यह आंदोलन सफल हुआ, फलस्वरुप अंग्रेजों को कर वृध्दि वापस लेना पड़ा। इस सफलता पर ''टाइम्स आफ इंडिया'' एग्लोइण्डियन पत्र ने पटेल को ''टाइगर आफ बारडोली'' की उपाधी दी। इस आंदोलन ने बैरिस्टर वल्लभ भाई पटेल को 'सरदार' वल्लभ भाई पटेल बना दिया। जिस कुशलता से बारडोली सत्याग्रह का संचालन एवं नेतृत्व किया उसने भारत के 80% किसानों के बीच में उन्हें 'सरदार' याने मुखिया/नेता के रुप में राष्ट्रीय ख्याति दिलवाई। गांधी जी ने सरदार पटेल के बारे में खेड़ा सत्याग्रह सफलता की खुशी में आयोजित जन सभा को संबोधित करते हुये कहा था, कि ''वल्लभ भाई को पहले बार देखने पर मैं मन में सोचने लगा, कि यह अक्खड़ आदमी कौन है, और यह क्या काम करेगा ? किन्तु मैं ज्यों-ज्यों उनके निकट आते गया, मेरा विश्वास बढ़ता ही गया, कि मुझे वल्लभ भाई ही चाहिये। यदि मुझे वल्लभ भाई नहीं मिले होते, तो जो काम आज सफल हुआ है, वह नहीं हुआ होता।''
सन् 1930 के असहयोग आंदोलन का नेतृत्व करते हुये, जेल गये। 1940 एवं 1942 के आंदोलन के दौरान भी जेल गये।
सन् 1931 में करांची में आयोजित ''भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस'' के राष्ट्रीय महाअधिवेशन की अध्यक्षता की और राष्ट्रीय नेता के रुप में उभरकर सामने आये। अब सारा देश उन्हें सरदार के रुप में जानने लगा। सरदार पटेल अनुशासन के पक्के थे, उनके अनुशासन के पक्के होने का प्रमाण था, कि उन्होंने पारसी कम्युनिटी के बैरीस्टर के.एफ. नरीमन एवं म.प्र. के मुख्यमंत्री डॉ. खरे तक को नहीं बख्शा। उनके अनुशासन के चलते ही गरमदल के नेता सुभाषचन्द्र बोस को भी कांग्रेस छोड़ना पड़ा। सन् 1932 में गांधी जी के साथ पुणे के येरवदा जेल में रहें। गांधी-अंबेडकर के बीच हुये, पूना पैक्ट के साक्षी रहे। ''भारत छोड़ो'' आंदोलन में सन् 1940-41 में सक्रियता से भाग लिया। ''करो या मरो'' आंदोलन में सन् 1942 में जेल गये। 15 जून सन् 1945 को सरदार पटेल को उपप्रधानमंत्री एवं स्वराष्ट्र मंत्री (गृह मंत्री) बनाया गया।
13 नवम्बर, 1947 को जूनागढ़ रियासत की यात्रा कर, सोमनाथ के ध्वस्त मंदिर का पुनरुद्धार करवाया, जिसे मोहम्मद गजनबी ने लुटा था। देश आजादी के प्रकाश को 15 अगस्त सन् 1947 को पा सका, अंग्रेजों के 250 वर्षो के राज्य से (1757 से 1947) भारत ने मुक्ति पाई। अंग्रेजी शासन से आजादी के समय भारत-पाकिस्तान बंटवारे की त्रासदी के साथ-साथ देशी राजवाडों की समस्या भी भारत के सामने मुहं खोले खड़ी थी। भारत का पहला प्रधानमंत्री, आल इण्डिया कांग्रेस कमेटी (AICC) के अध्यक्ष को बनाया जाना था। AICC अध्यक्ष देश के 15 प्रदेश कांग्रेस कमेटियों (PCC) के द्वारा बहुमत से चुना जाना था। सरदार पटेल का नाम 15 में 12 PCC ने AICC अध्यक्ष के लिये प्रस्तावित किया था। जवाहर लाल नेहरु के नाम का प्रस्ताव किसी ने नहीं किया। गांधी के ईशारे पर कांग्रेस वर्किंग कमेटी (CWC) ने नेहरु का नाम प्रस्तावित किया। गांधी ने बहुमत की बात नकारते हुये, सरदार पटेल से आग्रहकर, पं. नेहरु को AICC- अध्यक्ष, अर्थात् प्रधानमंत्री बनवाया। क्या महात्मा गांधी के इस निर्णय से प्रजातंत्र (बहुमत) की जीत हुई ?
अंग्रेजों से भारत को मुक्त कराने के बाद शेष-भारत (पुराना भारत पाकिस्तान के अलग होने के बाद) के एक तिहाई क्षेत्रफल पर देशी रियासतें थी। जिसकी जनसंख्या लगभग एक चौथाई थी। अंग्रेजों के शासनकाल में 53% भारत का भूभाग सीधे उनके अधीन था, तथा 47% राजवाड़ों में अंग्रेज अपने राजनैतिक प्रतिनिधि (Political Agent) के माध्यम से राज करते थे। शेष भारत में राजवाडों की संख्या लगभग 563-565 थी। भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन, अंग्रेजों के विरुद्ध था। देशी राजवाड़ो को उससे कुछ लेना-देना नहीं था, क्योंकि देशी राजवाड़े अंग्रेजों दलाल (Agent) थे। देशी राजावाड़ों में कांग्रेस का ना तो प्रचार था न ही संगठन था। जब 15 अगस्त 1947 को भारत, अंग्रेजों से मुक्त हुआ, तो इसके मतलब था, कि 53% भारत ही अंग्रजों की दासता से मुक्त हुआ। 47% भारत अब भी 565 राजवाड़ों के माध्यम से गुलामी के शिकंजें में जकड़ा हुआ था। इस सबको बहुत कम समय में अपनी कुशाग्र प्रशासनिक क्षमता का परिचय देते हुये, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने भारत में मिला लिया। सरदार पटेल द्वारा यह काम अहिंसा के माध्यम से आपसी समझौते के तहत कर लिया गया। विश्व इतिहास की यह बेमिसाल घटना है। जूनागढ़ एवं हैदराबाद की विद्रोही रियासतों को भी सरदार ने कूटनीति एवं बल प्रयोग कर भारत में मिला लिया। भारत छोड़ते तक्त अंग्रेजों ने देशी राजवाड़ों को स्वतन्त्र कर, उन्हें भारत या पाकिस्तान में शामिल होने या ना होने की आजादी दे दी थी। निजाम हैदराबाद एवं नवाब जूनागढ़ पाकिस्तान में सम्मिलित होना चाहते थे। इनके इरादों को नाकाम करने में सरदार पटेल सफल रहे। जयपुर एवं दरभंगा के महाराजाओं ने अपने स्वतंत्र अस्तीत्व बनाये रखने की घोषणा की थी, उन्हें भारतीय गणतन्त्र में शामिल करवाने में सरदार पटेल ने सफलता पाई। अर्थात अंग्रेजों की गुलामी, विदेशी राजतन्त्र से 53% भारत को मुक्त करने के बाद, देशी राजाओं की (देशी राजतन्त्र) गुलामी से 47% भारत को सरदार पटेल ने मुक्ति दिलाई। अर्थात विदेशी राजतन्त्र अंग्रेजों से जकड़े 53% भारत की स्वतन्त्रता श्रेय का यदि गांधी जी एवं कांग्रेस को मना जाता है, तो (काले अंग्रेजों) देशी राजतन्त्र (देशी रियासत) में जकड़े 47% भारत के लोगों को राजतन्त्र से मुक्ति दिलाकर जनतन्त्र (प्रजातंत्र) का वरदान दिलाना केवल सरदार पटेल के बस की बात थी। यदि यह काम नहीं होता तो भारत के और टुकड़े होने से कोई भी नहीं रोक सकता था। कश्मीर का मामला आज अत्यंत पेचीदा हो चला है। 47% कश्मीर के भारत में विलय के मामले में पं. नेहरु ने हस्ताक्षेप किया, जिसके फलस्वरुप आधा कश्मीर पाकिस्तान एवं चीन के कब्जे में आ पाया जो आज भी अशांत है।
इतने बड़े काम का श्रेय 'लोह पुरुष', सदार वल्लभ भाई पटेल को जाता है। परन्तु इतने बड़े सत्य को झुठलाने की नापाक साजिश सरदार पटेल के निधन के बाद हुआ। अहमदाबाद में आयोजित सन् 1956 के ''भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस'' के राष्ट्रीय अधिवेशन में श्री अलगू राय ने विचारार्थ संशोधन प्रस्ताव पेश किया, भाव यह था, ''देशी राजवाड़ों को समाप्त कर वहां के लोगों को जनतन्त्र सरदार वल्लभ भाई पटेल के प्रयासों से मिला।'' इसका उल्लेख कांग्रेस के इतिहास में करना उचित होगा। तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु जो सरदार के रहमोकरम पर प्रधानमंत्री बने थे, ने यह कह कर आपत्ती की कि इस ऐतहासिक तथ्य के आंकलन का समय अभी नहीं आया है, और प्रस्ताव समय पूर्व लाया जा रहा है। फलस्वरुप यह प्रस्ताव गिर गया। कांग्रेस एवं जवाहरलाल के इस रवैये से क्षुब्ध होकर सरदार पटेल के सुपुत्र डयाह भाई पटेल ने कांग्रेस से इस्तीफा यह सोचकर दिया कि ''सरदार पटेल जैसे महान देशभक्त द्वारा देश को एकता के सूत्र में पिरोने के प्रयास को कांग्रेस नेतृत्व मान्यता नहीं देता, तो ऐसे कांग्रेस में रहना बेकार है।
ऐसे महान नेता, भारत के शिल्पी, त्यागी, तपस्वी लौहपुरुष, सरदार वल्लभ भाई पटेल का निधन 15 दिसम्बर सन् 1950 को बिड़ला भवन, नेपियर रोड, बम्बई में सुबह 9.30 बजे हुआ। सरदार पटेल को मरणोपरान्त 1991 में भारत रत्न की उपाधि प्रदान की गई।
सरदार पटेल के प्रति अपने विचार व्यक्त करते हुये, उत्तर भारत के पेरियर (रामास्वामी नायकर) कहे जाने वाले 'अर्जक संघ' एवं बाद में ''शोषित समाज पार्टी'' के संस्थापक मां एड. रामस्वरुप वर्मा लिखते है:-
आकस्मिक निधन के पूर्व सरदार पटेल ने बम्बई से एक पत्र स्वराष्ट्र मंत्री की हैसियत से प्रधानमंत्री नेहरु को लिखा था, जो अब प्रकाशित हो चुका है। ''नेहरु के चीन के प्रति नरम रवैये से असमति प्रकट करते हुये लिखा है, कि तिब्बत को स्वतन्त्र राष्ट्र बने रहने में सहायता करनी चाहिये, तिब्बत में चीनी हस्तक्षेप का डटकर जवाब देना चाहिये।''
यदि तिब्बत में चीनी कब्जा का विरोध होता, तो भारत से 80 हजार वर्ग किलोमीटर भूमि पर चीन का कब्जा नहीं होता। लड़ाई (भारत-चीन की) तिब्बत की भूमि पर होती, चीन आक्रामक घोषित होता। दुनिया की सहानुभूति भारत के साथ होती। सरदार पटेल की नीतियां एवं काम से देश सबल एवं सुट्टढ़ होता।
भारत के विदेशी शासन एवं देशी रियासतों से मुक्ति के पश्चात देश की एकता की महान रचना लौह पुरुष ने अपना सारा जीवन अर्पण कर दिया ऐसे महापुरुष के 'जन्म दिन' को 'एकता दिवस' के रुप में मनाने का अपील करते हैं। ''अर्जक संध'' इसे 'एकता दिवस' के रुप में सारे देश में मनाते आ रही है।
रामस्वरुप वर्मा का स्पष्ट मत है, कि यदि सरदार पटेल भारत के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो देश आज जिन समस्याओं से जूझ रहा है, वह नहीं होता। भारत दुनियां के नक्शे में एक सबल राष्ट्र बन उभर पाता। इस कल्पना में सच्चाई हैं।
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह का कहना हैं, कि ''जिस वातावरण में पलकर सरदार पटेल बड़े हुये, उसके संस्कारों की उनके हृदय पर अमिट छाप पड़ी, वे अत्यन्त स्पष्टवादी एवं कुशल प्रशासक हुये। मेरा अपना मानना है, कि यदि पटेल हमारे पहले प्रधानमंत्री होते, तो जितनी समस्याओं का देश को अभी सामना करना पड़ रहा है, उसमें से एक भी पैदा नहीं होती।''
पूर्व केन्द्रीय मंत्री बाबू जगजीवन राम- ''सरदार पटेल हमारे 'राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम' में अग्रण्य रहे वास्तव में वे इसकी शक्ति का श्रोत थे। 'बारडोली किसान सत्याग्रह' सरदार की संगठन शक्ति का अजेय कीर्ति-मान था। सरदार ने देशी रियासतों को मिलाकर नये भारत का निर्माण किया तथा देश ने सही मायने में उन्हें भारत के लौह पुरुष के रुप में जाना। भारतीय इतिहास में उनका नाम और गौरव पूर्ण इतिहास बना रहेगा।
सरदार पटेल का कथन है, कि कर्म निश्चय ही प्रभु की सच्ची उपासना है, किन्तु हास्य विनोद सच्चा जीवन है। जो व्यक्ति जीवन को बहुत अधिक गंभीरता से लेता है, तो उसे बहुत दुखमय जीवन बिताना पड़ता है। जो व्यक्ति हर्ष और विषाद को समा भाव से ग्रहण करता है, वही सच्ची जिन्दगी जीता है।'' एक अंग्रेज पत्रकार ने सरदार पटेल से पूछा What is your Culture (तुम्हारी संस्कृति क्या हैं?) पटेल जी ने तपाक से उत्तर दिया My Culture is agriculture’(मेरे संस्कृति खेती है।) मौलाना शौकत अली ने उन्हें बर्फ से ढ़का ज्वालामुखी, विनोबा भावे- 'सरदार पटेल गांधी की अहिंसक सेना के प्रधान सेनापति थे'' कहा था।
सरदार पटेल की अंत्येष्टि में राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद शामिल थे, लेकिन प्रधानमंत्री नेहरु शामिल नहीं हुये। बाद में पं. नेहरु ने संसद में सरदार पटेल को श्रध्दांजली देते हुये कहा ''यह एक बहुत बड़ी कहानी है, जिसे हम सब जानते हैं, सारा देश भी जानता है, इसे इतिहास के अनेक पृष्ठों में लिखा जायेगा जहां उन्हें नवीन भारत का निर्माता तथा एकीकरणकर्ता बतलाकर उनके विषय में अन्य बातें भी लिखी जायेंगी। स्वातन्त्रय संग्राम की हमारी सेनाओं के एक महान सेनापति के रुप में उनका हममें से अनेक व्यक्ति सम्भवत: सदा स्मरण करते रहेंगें। वह एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने संकट काल में एवं विजय की बेला में सदा ही ठोस एवं उचित परामर्श दिया। वह एक ऐसे मित्र, सहयोगी तथा साथी थे, जिनके ऊपर निर्विवाद रुप से 'शक्ति की ऐसी मिनार'के रुप में भरोसा किया जा सकता था, जिसने हमारे संकट के दिनों में हमारे दुविधा में पड़े हुये, हृदयों को पुन: शक्ति प्रदान की।
सरदार पटेल को समर्पित राष्ट्रकवि मैथलिशरण गुप्त जी की इन पंक्तियों को उद्धत करते हुये, सरदार पटेल को अंतिम श्रद्धांजली अर्पित है।
मातृभूमि के छै सौ खंडों को, जोत कलम नामक हल से।
एक खेत में परिणित जिसने किया, सबल से, कौशल से॥
अटल पुरुष अपना पटेल, वह तृप्त आज निज कौशल से॥
उपल कठिन मंजुल जलमय, है अतुलनीय हिमांचल से॥
सरदार वल्लभ भाई पटेल (31 अक्तूबर, 1875 - 15 दिसंबर, 1950) भारत के स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी एवं स्वतन्त्र भारत के प्रथम गृह मंत्री थे। उनका जन्म नडियाद, गुजरात मे हुआ था। भारत की स्वतंत्रता संग्राम मे उनका मह्त्वपूर्ण योगदान है। भारत की आजादी के बाद वे प्रथम गृह मंत्री और उपप्रधानमंत्री बने। उन्हे भारत का लौह पुरूष भी कहा जाता है। बल्लभभाई पटेल का जन्म एक कृषक परिवार में हुआ था। वे झवेरभाई पटेल एवं लदबा() की चौथी संतान थे। सोमभाई, नरसीभाई और विट्टलभाई उनके अग्रज थे। उनकी शिक्षा मुख्यतः स्वाध्याय से ही हुई। लन्दन जाकर उन्होने बैरिस्टर की पढाई पूरी की और वापस आकर गुजरात के अहमदाबाद में वकालत करने लगे। महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होने भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में भाग लिया। स्वतन्त्रता आन्दोलन में सरदार पटेल का सबसे पहला और बडा योगदान खेडा संघर्ष में हुआ। गुजरात का खेडा खण्ड(डिविजन) उन दिनोम भयंकर सूखे की चपेट में था। किसानों ने अंग्रेज सरकार से भारी कर में छूट की मांग की। जब यह स्वीकार नहीं किया गया तो सरदार पटेल, गांधीजी एवं अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हे कर न देने के लिये प्रेरित किया। अन्त में सरकार झुकी औअर उस वर्ष करों में राहत दी गयी। यह सरदार पटेल की पहली सफलता थी। बारडोली कस्बे में सशक्त सत्याग्रह करने के लिये ही उन्हे पहले बारडोली का सरदार औअर बाद में केवल सरदार कहा जाने लगा। सरदार पटेल १९२० के दशक में गांधीजी के सत्याग्रह आन्दोलन के समय कांग्रेस्स में भर्ती हुए। १९३७ तक उन्हे दो बार कांग्रेस के सभापति बनने का गौरव प्राप्त हुआ। वे पार्टी के अन्दर और जनता में बहुत लोकप्रिय थे। कांग्रेस के अन्दर उन्हे जवाहरलाल नेहरू का प्रतिद्वन्दी माना जाता था।
यद्यपि अधिकांश प्रान्तीय कांग्रेस समितियाँ पटेल के पक्ष में थीं, गांधी जी की इच्छा का आदर करते हुए पटेल जी ने प्रधानमंत्री पद की दौड से अपने को दूर रखा और इसके लिये नेहरू का समर्थन किया। उन्हे उपप्रधान मंत्री एवं गृह मंत्री का कार्य सौंपा गया। किन्तु इसके बाद भी नेहरू और पटेल के सम्बन्ध तनावपूर्ण ही रहे। इसके चलते कई अवसरों पर दोनो ने ही अपने पद का त्याग करने की धमकी दे दी थी। गृह मंत्री के रूप में उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों(राज्यों) को भारत में मिलाना था। इसको उन्होने बिना कोई खून बहाये सम्पादित कर दिखाया। केवल हैदराबाद के आपरेशन पोलो के लिये उनको सेना भेजनी पडी। भारत के एकीकरण में उनके महान योगदान के लिये उन्हे भारत का लौह पुरूष के रूप में जाना जाता है। सन १९५० में उनका देहान्त हो गया। इसके बाद नेहरू का कांग्रेस के अन्दर बहुत कम विरोध शेष रहा।
सरदार पटेल ने आजादी के ठीक पूर्व (संक्रमण काल में) ही पीवी मेनन के साथ मिलकर कई देसी राज्यों को भारत में मिलाने के लिये कार्य आरम्भ कर दिया था। पटेल और मेनन ने देसी राजाओं को बहुत समझाया कि उन्हे स्वायत्तता देना सम्भव नहीं होगा। इसके परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। केवल जम्मू एवं काश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद के राजाओं ने ऐसा करना नहीं स्वीकारा। जूनागढ के नवाब के विरुद्ध जब बहुत विरोध हुआ तो वह भागकर पाकिस्तान चला गया और जूनागढ भी भारत में मिल गया। जब हैदराबाद के निजाम ने भारत में विलय का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया तो सरदार पटेल ने वहाँ सेना भेजकर निजाम का आत्मसमर्पण करा लिया। किन्तु नेहरू ने काश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तराष्ट्रीय समस्या है।
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